उत्तराखंड के उत्तरकाशी टनल में फंसे सभी श्रमिकों को केंद्र और राज्य सरकार की मदद से सभी श्रमिकों को बचाने के कोशिश की जा रही थी लेकिन कही न कही कोई न कोई मुश्किल खड़ी हो जाती। परन्तु इतनी मुश्किलों के बाद हार न मानते हुए आख़िरकार संत में जीत हासिल हुई। वही, बचाव अभियान से जुड़ी एजेंसियों के अधिकारी व कर्मचारी इस सफलता से फूले नहीं समा रहे।
ऐसा प्रतीत होता है कि मानो आसमान से भी खुशियां बरस रही हैं। लगभग आधे घंटे तक ऐसा ही नजारा रहा और फिर बादलों के बीच से छन-छनकर आ रही सूर्य की किरणें खुशियों में सहभागी बनने लगीं। अब सिलक्यारा में ओर से छोर तक उत्सव का माहौल है। जिधर नजर दौड़ाओ होटल व घरों की छत पर, हाईवे के किनारे, खाली पड़े खेतों में स्थानीय ग्रामीणों का हुजूम उमड़ा नजर आता है। मोबाइल घनघनाने लगे हैं। स्वजन अपनों के लिए नए वस्त्र लेकर आए हैं। इन्हीं को पहनकर वह सुरंग से बाहर आएंगे।
जब परिजनों से यह कहा गया है कि वह अपना सारा सामान पैक कर लें। मानो जैसे बरसो पुरानी इच्छा पूर्ण हो गई हो वह इतने खुश नज़र आ रहे थे कि उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे। शाम ठीक 7:45 बजे श्रमिकों को सकुशल बाहर निकालने के लिए बनाई गई निकास सुरंग के पाइप से जैसे ही पहले श्रमिक के रूप में झारखंड के खिरबेरा (रांची) निवासी अनिल बेदिया बाहर आए, वहां मौजूद बचाव अभियान से जुड़े कर्मियों, अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों, स्थानीय ग्रामीणों व श्रमिकों के स्वजन की खुशी का पारावार नहीं रहा।
लगातार गिर रहे तापमान के कारण बढ़ती कंपकंपाहट न जाने कहां काफूर हो गई। बचाव अभियान से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों के कार्मिक व अधिकारियों के चेहरे दमक उठे और श्रमिकों के स्वजन की आंखों से गंगा-जमुना की तरह बहने लगी स्निग्ध स्नेह की अजस्र धारा। यह दृश्य देख हर व्याकुल हृदय मोम की तरह पिघल उठा। यह ऐसा क्षण है, जब अधिकारियों व श्रमिकों के बीच कद और पद के सारे भेद मिट गए हैं। भारत माता की जय-जयकार के बीच सब एक-दूसरे को बधाई देते हुए आपस में मुंह मीठा करा रहे हैं।
आतिशबाजी के बीच दीपावली का-सा दृश्य साकार हो उठा है। पीछे मुड़कर देखें तो अंदाजा लगाना कठिन है कि उम्मीद-नाउम्मीदी के पल-पल बदलते माहौल में श्रमिकों के अपनों ने 17 दिन कैसे गुजारे होंगे। उनकी पीड़ा को शब्दों में बयान करना संभव नहीं है। इस कालखंड में उन्हें न जाने कितनी बार कलेजे पर पत्थर रखना पड़ा होगा।
तब, जब सुरंग में भूस्खलन हुआ। तब, जब तीन मीटर ड्रिलिंग करने के बाद ही मशीन खराब हो गई। तब, जब चिन्यालीसौड़ हवाई पट्टी पर लाई गई नई मशीन को विमान से उतारने में आठ घंटे लग गए। तब, जब 22 मीटर तक ड्रिल करने के बाद मशीन का बैरिंग टूट गया। तब, जब पहाड़ी के दरकने की आवाज से रेस्क्यू अभियान रोक देना पड़ा। तब, जब मलबे के ढेर में राक बोल्ट राड, बियरिंग प्लेट व स्टील के रिब निकास सुरंग की राह में रुकावट बन गए। तब, जब सफलता के बिल्कुल करीब पहुंचने के बावजूद अचानक 25 टन वजनी मशीन का प्लेटफार्म क्षतिग्रस्त हो गया और तब, जब कहा जाने लगा कि निकास सुरंग की राह अब आसान नहीं।
बचाव अभियान के दौरान इसी तरह अचानक उम्मीद की लौ टिमटिमाती थी और फिर देखते ही देखते अंधकार के काले बादल उसे अपने आगोश में ले लेते थे। लेकिन, वह सुरंग में कैद श्रमिकों का संबल और उन्हें बचाने के अभियान में जुटे कार्मिकों का धैर्य ही था, जिसने रह-रहकर आते निराशा के भाव को नाउम्मीदी में नहीं बदलने दिया। इस सबके बीच स्थानीय ग्रामीणों की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जो घर-परिवार के सारे कामकाज छोड़कर भोर होते ही सिलक्यारा में डेरा डाल देते थे। जो सिलक्यारा पहुंचने वालों की मदद के लिए आठों प्रहर तत्पर रहते थे। हालांकि, इस रेस्क्यू के बाद सभी लोग इतने ज्यादा खुश थे कि कहना ही क्या? लेकिन इस बात को मानना पड़ेगा श्रमिकों ने हिम्मत नहीं हारी और इस घड़ी का डट कर सामना किया। वही, 17 दिनों बाद अपने परिजनों से मिलकर उन्हें इतनी ज्यादा ख़ुशी मिली की जिसका कोई ठिकाना नहीं रहा। आख़िरकार खुश होने भी ज्याज हैं क्यूंकि वह ज़िन्दगी की जंग जीत कर आए हैं।