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कांग्रेस के लिए आज जीत से ज्यादा चुनौतीपूर्ण जीत के बाद मुख्यमंत्री चुनना है

कांग्रेस के लिए आज जीत से ज्यादा चुनौतीपूर्ण जीत के बाद मुख्यमंत्री चुनना या फिर राज्यों में क्षत्रप नेताओं के बीच नेतृत्व चुनना हो गया है। अभी कर्नाटक में भारी जीत के बाद भी कांग्रेस को अपना सीएम चुनने में पांच दिन लग गए। सीएम की कुर्सी के लिए सिद्धारमैया और डी. के. शिवकुमार के बीच खींचतान दिखी। अंत में सब ठीक हो गया लेकिन पुराने अनुभव के आधार पर पार्टी के लिए भविष्य की चिंता बनी रह सकती है। क्या आपसी खींचतान कांग्रेस की कमजोरी बन गई है? कुछ महीने पहले हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस की जीत के बाद सुखविंदर सिंह सुक्खू और प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह के बीच सत्ता को लेकर खींचतान दिखी। प्रदेश के संगठन की मजबूती के लिए नेताओं के बीच समन्वय और तालमेल बेहद जरूरी होता है, लेकिन इससे उलट कांग्रेस के भीतर गुटबाजी और आपसी खींचतान पार्टी का स्थायी भाव बन चुका है। इसके चलते कांग्रेस को खासा नुकसान भी उठाना पड़ा है। पिछले पांच सालों में कांग्रेस ने गुटबाजी और आपसी रार ने कई राज्यों में अपनी सत्ता गंवा दी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मध्य प्रदेश है। वहां कमलनाथ के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद से ही लगातार कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच खींचतान चली। अंतत: सिंधिया के साथ 22 विधायकों की टूट से 15 महीनों में सरकार गिर गई। इसी तरह पिछली बार कर्नाटक कांग्रेस-JDS गठबंधन की सरकार भी कांग्रेस के भीतर हुई गुटबाजी की भेंट चढ़ गई। पंजाब में नेताओं की आपसी कलह सरकार को ले डूबी। कैप्टन अमरिंदर सिंह बनाम सिद्धू, कैप्टन बनाम प्रताप सिंह बाजवा, सिद्धू बनाम पूर्व सीएम चरणजीत सिंह चन्नी की गुटबाजी सभी ने देखी। आपसी खींचतान का सबसे अहम मामला राजस्थान में दिख रहा है, जहां सीएम अशोक गहलोत और पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट के बीच सरकार बनने से पहले से ही आपसी रार चल रही है। उस समय भी सरकार बनाने को लेकर तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी को दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करनी पड़ी थी। करीब पांच साल से दोनों में तकरार जारी है। कई बार सरकार पर तलवार लटकती दिखी। कुछ ऐसी ही स्थिति छत्तीसगढ़ में दिखाई दी, जहां सीएम की कुर्सी को लेकर भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच खींचतान दिखी। वहां भी कई बार दोनों नेता आमने-सामने दिखे। पिछले कुछ सालों में जीत की भरपूर संभावनाओं के बाद अगर कांग्रेस सत्ता से चूकी तो इसके पीछे उसके नेताओं के बीच की कलह ही है। उत्तराखंड चुनाव में पूर्व सीएम हरीश रावत, प्रीतम सिंह और प्रदेश प्रभारी देंवेद्र यादव के बीच गुटबाजी ने वहां कांग्रेस को कमजोर किया। महाराष्ट्र में प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले और पूर्व अध्यक्ष बाला साहब थोराट के बीच खींचतान जारी है। हरियाणा में कभी पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा और पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर के बीच भारी गुटबाजी थी तो आज हुड्डा और कांग्रेस महासचिव कुमारी सैलजा के बीच छत्तीस का आंकड़ा है। कांग्रेस के भीतर अगर उत्तर से लेकर दक्षिण तक नजर दौड़ाई जाए तो लगभग हर राज्य में प्रदेश नेतृत्व के बीच संतुलन का अभाव और गुटबाजी दिखती है। कर्नाटक के सीएम को लेकर चली खींचतान को भले ही पार्टी के संगठन महासचिव के. सी. वेणुगोपाल ने पार्टी के भीतर लोकतंत्र का नाम दिया हो, लेकिन वास्तव में यह कांग्रेस के भीतर शीर्ष नेतृत्व स्तर पर मौजूद कमजोरी का ही प्रतीक है कि वह गुटबाजी पर लगाम लगाने में नामाम दिख रहा है। वक्त रहते फैसले न लेना, समस्या की अनदेखी, समस्या को टालना और कड़े फैसले लेने में हिचक जैसी रणनीति से पार्टी ने समस्या को और बढ़ाया है।

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